Tuesday, February 2, 2010

.चाहत सी जगी.......

for Imoroz ji...........

आसमां को छूने की एक चाहत सी जगी,
तुझसे मिल के फिर पंच्छी सा उड़ने की चाहत सी जगी,
पा सकना तो मुमकिन नहीं, फिर भी
जाने क्यूँ , तुम्हे पाने की चाहत सी जगी,
झूठे रिश्तों की अनसुलझी डोर में उलझी सी मैं,
जाने क्यूँ आज खुद में ही खुद को पाने की चाहत सी जगी,
पाना खोना तो ज़िन्दगी की रीत है, पर
आज सचमुच में ज़िन्दगी को जीने की चाहत सी जगी,
बहुत अनमोल हो तुम इस ज़माने के लिए ,
तुम्हे इस ज़माने से चुराने की चाहत सी जगी,
किसी ख्वाब को सच होते देखा था मैंने,
तुमसे मिल कर फिर से ख्वाब संजोने की चाहत सी जगी,
मेरे हाथ में किसी ने कलम पकड़ा दी थी एक दिन,
उसी कलम से अब जादू सा चलने की चाहत सी जगी.........

8 comments:

Abhishek Tripathi said...

You started blogging is good... but what you're writing is .....

शशि "सागर" said...

बहुत अनमोल हो तुम इस ज़माने के लिए ,
तुम्हे इस ज़माने से चुराने की चाहत सी जगी...
बहुत ही सुन्दर ख्याल..अच्छा लगा आपको पढ कर !

रश्मि प्रभा... said...

kalam mukhrit ho uthi..chahat jo jagi

Unknown said...

Another one nice poem

डाॅ रामजी गिरि said...

इस चाहत में रूमानी कशिश है..बहुत ही भाव-प्रवण..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

किसी ख्वाब को सच होते न देखा था मैंने,
तुमसे मिल कर फिर से ख्वाब संजोने की चाहत सी जगी,

खूबसूरती से लिखे हैं एहसास....बहुत सुन्दर...

बस चाहत जगी रहनी चाहिए...

Razi Shahab said...

nice poetry
badhiya hai

Anonymous said...

awesome....